स्वदेशी की संकल्पना और व्यवहार
15 अगस्त 1947 को जब अपना देश स्वतन्त्र हुआ तब यह आशा बँधी थी की अब हम विकास के मार्ग पर तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए विश्व में एक सुखी, सम्पन्न, समृद्ध, स्वावलम्बी एवं सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में खड़े हो सकेंगे। किन्तु आज के भारत पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो घोर निराशा ही हाथ लगती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे और गम्भीर संकटों में फँसी हुई प्रतीत होती है।
इसके समाधान के लिए दो प्रमुख मार्ग हैं--
● एक मार्ग जिसके अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं,
विदेशी पूँजीपतियों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के
सहारे पश्चिम के सम्पन्न देशों के विकास के प्रारूप,
तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी को अपनाकर भारत
अपने संकटों को दूर कर सकता है।
● इसके विपरीत दूसरे मार्ग के अनुसार भारत स्वदेशी
तन्त्र एवं स्वदेशी प्रारूप को अपनाकर, अपने ही
बलबूते पर देश के विकास का सामर्थ्य जुटा सकता
है। इस मार्ग के अनुसार अपनी वर्तमान चुनौतियों
के समाधान के सूत्र अपनी परम्परा में ही खोजने
की आवश्यकता है।
स्वदेशी दर्शन की अवधारणा "स्व" के साक्षात्कार एवं "स्वत्व" के जागरण की अवधारणा है। स्वदेशी दर्शन से तात्पर्य है ''अपने शाश्वत् जीवन मूल्यों के प्रकाश में अपने देश व समाज की प्रकृति, प्रवृति एवं सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में मुख्यतः अपनी ही शक्ति, सामर्थ्य, साधन-सम्पदाओं एवं कौशल-प्रतिभाओं के आधार पर देश की कर्म शक्ति व ऊर्जा के जागरण द्वारा, धारणक्षम, पोषणक्षम, संस्कारक्षम, सर्व मंगलकारी, सन्तुलित एवं सर्वतोमुखी विकास का दर्शन'' । स्वदेशी दर्शन एक बहुआयामी, सर्वव्यापक, सार्वभौमिक अवधारणा है। यह कोई संकुचित अवधारणा नहीं है। सम्पूर्ण संसार के लिए विकास का कोई एक जैसा प्रारूप नहीं हो सकता। विविधता संसार का सत्य और सौन्दर्य दोनों हैं।
स्वतन्त्रता आन्दोलनों का प्रेरणा केन्द्र स्वदेशी --स्वदेशी भाव-भावना और रचना के लिए विभिन्न प्रयासों ने समूचे स्वाधीनता आन्दोलन को गति एवं ऊर्जा प्रदान की। दादा भाई नौरोजी ने तो अपने "आर्थिक निकासी सिद्धान्त" के आधार पर ही स्वतन्त्रता आन्दोलन को परिभाषित किया था। भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद की साकार अभिव्यक्ति 'स्वदेशी' ही रही है। स्वतंत्रता आन्दोलन की एक प्रवृति के नाते स्वदेशी का उल्लेख 1849 में पुणे से प्रकाशित "भास्कर" पत्र में मिलता है। इस पत्र में जनता से विदेशों से आयातित उत्पादों के स्थान पर भारतीय उत्पादों के प्रयोग की बात कही गयी थी। 1857 में पंजाब में नामधारी पन्थ के प्रेरणा स्रोत सत्गुरु रामसिंह जी की योजना व प्रेरणा से प्रारम्भ हुए कूका आन्दोलन में ब्रिटिश व्यवस्थाओं का बहिष्कार करते हुए स्वदेशी व्यवस्था खड़ी करने का शुभारम्भ हुआ। बंगाल में 1867 में नावगोपाल मित्र और ऋषि राजनारायण घोष के प्रयासों से हिन्दु (स्वदेशी) मेलों का आयोजन प्रारम्भ। 1872 में महादेव गोविन्द रानाडे द्वारा पुणे में आर्थिक विषय पर एक सार्वजानिक भाषण माला का आयोजन जिसमें स्वदेशी का जोरदार आवाहन किया। स्वामी दयानन्द, महर्षि अरविन्द, लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, महात्मा गांधी, बाबू गेनू आदि इसी स्वदेशी आंदोलन के प्रकाश स्तम्भ हैं।
स्वदेशी संरचना :--
स्वदेशी दृष्टिकोण के अनुसार पूँजीवाद तथा समाजवादी संरचना का सही विकल्प विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था ही हो सकती है। गांधीजी की स्वराज कल्पना में भी स्वदेशी अर्थव्यवस्था ही प्रमुख थी।
स्वदेशी दृष्टिकोण न तो सरकार आश्रित अर्थव्यवस्था में विश्वास रखता है और न ही बाजार आश्रित अर्थव्यवस्था में। यह जन आश्रित अथवा जन सहयोग एवं जन सहभागिता वाली अर्थव्यवस्था में विश्वास रखता है।
स्वदेशी व्यवहार का आर्थिक पक्ष :--
स्वदेशी अर्थ रचना खड़ी कर उसे गतिमान बनाने के लिए स्वदेशी व्यवहार अर्थात् यथा सम्भव स्वदेशी उत्पादकों द्वारा उत्पादित(निर्मित) सामान का ही प्रयोग करना। अपेक्षा है कि देश के उत्पादक उद्यमी अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर कम मूल्य पर शुद्ध एवं उच्च गुणवत्ता वाली वस्तुओं का उत्पादन करें।
देश के वैज्ञानिक, तकनीशियन, शोधकर्ता एवं शोध संस्थायें देश की प्रतिभा व कौशल का प्रयोग करते हुए अपनी परिस्थितियों के अनुरूप योग्य तकनीकी का विकास करें। सरकार को कभी भी विदेशी कम्पनियों का आधिपत्य नहीं होने देना चाहिए। उसको विदेशी निवेश के मोहजाल से बाहर निकलना होगा। विश्व व्यापार संघठन(WTO) में अन्य विकासशील देशों के सहयोग से अपनी शर्तों को मनवाने के लिए प्रयास प्रारम्भ करने चाहिए। देश के हितों की पूर्ति यदि विश्व व्यापार संघठन से नहीं होती दिखाई दे तो विकासशील देशों को नेतृत्व प्रदान करते हुए "विश्व व्यापार संघठन" से बाहर आ जाना चाहिए।
स्वदेशी व्यवहार का सामाजिक पक्ष:--
स्वभाषा, स्वभूषा, स्वभोजन आदि एवं "स्व" का अभिमान स्वदेशी व्यवहार के लिए प्रेरणा, इसलिए घर, परिवार, व्यवसाय, उत्सवों आदि में इनका आग्रह। अपनी भाषा व भारतीय वेशभूषा का प्रयोग, धार्मिक अनुष्ठानों, मांगलिक कार्यों व राष्ट्रीय दिवसों पर अवश्य करना चाहिए। अधिकाधिक पारम्परिक भोज्य पदार्थों और मिष्ठानों को बढ़ावा देना, घर की आंतरिक सज्जा स्वदेशी हो। घर में पारम्परिक फलदार व फूलदार वृक्ष व पौधे लगाए। गौधन स्वदेशी का प्रतिक है।गौ पालन प्रारम्भ करना चाहिए। यदि गौपालन सम्भव नही तो परिवार में गौदुग्ध व उससे बने उत्पादों के प्रयोग का स्वभाव बनायें यथा सम्भव भारतीय चिकित्सा पद्धतियों, औषधियों तथा घरेलु उपचार परम्परा का उपयोग करना चाहिए।