संघ कार्य की प्रासंगिकता
संघ स्थापना के समय देश परतन्त्र था। उस समय संघ की प्रतिज्ञा में "हिन्दु राष्ट्र को स्वतन्त्र करना" उद्देश्य था। स्वतन्त्र होने के पश्चात् अब संघ की क्या आवश्यकता है? यह प्रश्न उठा। परकीय शासनकर्ताओं के स्थान पर अपने शासनकर्ता आ गए। यह एक उपलब्धि हो सकती है लेकिन इसके कारण समाज की स्थिति और मानसिकता में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ। "स्वराज्य आया स्वतन्त्रता अभी प्राप्त करनी है" अर्थात् अभी पाश्चात्य विचारों का ही प्रभाव है। देश आज विभिन्न प्रकार की समस्याओं जैसे -निर्धनता, अस्पृश्यता, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, बेईमानी, स्वार्थपरता, धर्मान्तरण, आतंकवाद, घुसपैठ,नक्सलवाद आदि से ग्रस्त है। देश में राष्ट्रीय चरित्र का अभाव, स्व का विस्मरण, धर्मस्थलों की दुर्दशा, जातीय कटुता आदि विषय भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इन सबको सुधारने का दायित्व केवल शासन का ही नहीं अपितु समाज का अर्थात् हमारा भी है। मुटठी भर लोग देश की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते है। इसलिए सम्पूर्ण समाज की जागरूकता आवश्यक है। यह कार्य संस्कारित व चरित्रवान, प्रमाणिक तथा देशभक्त समाज द्वारा ही सम्भव होगा। इसलिए व्यक्ति निर्माण, समाज संघठन तथा राष्ट्र जागरण का कार्य आज भी आवश्यक एवं प्रासंगिक है। वर्तमान में इन गुणों की उत्पत्ति का यशस्वी साधन संघ अर्थात् शाखा है। शाखा के विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा ही अपेक्षित गुणों से युक्त व्यक्तियों का निर्माण सम्भव है। अतः वर्तमान परिस्थितियों में संघ की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है।
"संघ शाखा से संस्कारित स्वयंसेवकों द्वारा समाज जागरण व समस्या समाधान के उदाहरण" :--
1963 में स्वामी विवेकानन्द जन्मशताब्दी के अवसर पर विवेकानन्द शिला स्मारक निर्मित का संकल्प कर देश भर में जागरण, धन संग्रह पश्चात स्मारक का निर्माण। 1964 में विश्व हिन्दु परिषद् की स्थापना के बाद 1966 में प्रथम विश्व हिन्दु सम्मलेन में देश के प्रमुख धर्माचार्यों द्वारा परावर्तन(घर वापसी) को मान्यता 1969 में उड्डपी में आयोजित धर्म सभा में अस्पृश्यता अमान्य की तथा धर्म में छुआछूत का कोई स्थान नहीं की उदघोषणा की। 1975 आपातकाल के विरुद्ध जनसंघर्ष किया और उसमें सफलता प्राप्त की। 1980 मिनाक्षीपुरम् में सामूहिक मतान्तरण के विरुद्ध सामूहिक जन जागरण, 1983 में एकात्मता यात्राओं के माध्यम से मूलभूत एकता की अनुभूति। 1986 से श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन द्वारा हिन्दु समाज का स्वाभिमान जागरण। "तिरुपति-तिरुमला देवस्थानम्(तिरुपति बाला जी) ईसाइयों के अतिक्रमण के विरुद्ध सफल जनान्दोलन, श्रीराम सेतु बचाने में सफलता, श्री अमरनाथ देवस्थानम् (जम्मू-कश्मीर) की भूमि प्राप्ति के लिए अभूतपूर्व सफल जनान्दोलन । यह सब संघ के सक्रिय सहयोग के कारण ही सम्भव हुआ।
कश्मीर में आतंकवाद , पूर्वोत्तर में घुसपैठ, गौहत्या व वनवासी क्षेत्रों में सामूहिक धर्मान्तरण के विरुद्ध देश भर में एक साथ प्रतिक्रिया। राष्ट्रीय अस्मिता व स्वाभिमान जागरण के प्रत्येक प्रयास में सक्रिय सहभागिता तथा देश की एकता, अखण्डता व अस्मिता के विरुद्ध षड्यन्त्रों को विफल करने में समाज की सक्रियता में संघ की हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका। भारत में अपनी पहचान के साथ-साथ अपने पुरुषार्थ के आधार पर विश्व में स्वाभिमान के साथ गौरवपूर्ण स्थिति में खड़ा होने की आकाँक्षा आज हिन्दु समाज में जग रही है। यह जगाने तथा उसे सफलता की स्थिति तक ले जाने में संघ जैसे अराजनैतिक, सम्पूर्ण समाज को जोड़ने वाले सामाजिक आन्दोलन हर समय प्रासंगिक एवं आवश्यक हैं।
लेबल: संघ की आधारभूत मान्यताये