शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष

अधिकाँश कार्य व संघठन किसी तात्कालिक समस्या 
की प्रतिक्रिया स्वरुप जन्म लेते हैं। संघठित अवस्था किसी भी समाज की स्वाभाविक अवस्था है। हिन्दु संघठन एक सकारात्मक व विधायी कार्य है। किसी विशेष परिस्थिति अथवा किसी विशेष प्रतिक्रिया के कारण नहीं। हिन्दु संघठन, मुसलमान व ईसाई समाज के विरोध के लिए नहीं अपितु अपने ही हिन्दु समाज की सर्वांगीण उन्नति के लिए है। उसका स्वरुप सकारात्मक व राष्ट्रपोषक है। सुदृढ़, स्वस्थ व शक्तिशाली समाज ही सम्मान से जीवित रह सकता है अतः यह(संघठन)राष्ट्रीय कार्य है। यह सभी स्थितिओं-परिस्थतियों में कार्य के अनुसार कार्यकर्ताओं की मानसिक तैयारी करने व बाधाओं में से मार्ग निकालकर आगे बढ़ाने वाला कार्य है। इस हेतु दैनिक शाखा सर्दी, गर्मी, वर्षा में भी सभी कार्यक्रमों में समय का आग्रह व अभ्यास। संघ पर तीन प्रतिबन्ध 1948, 1975, 1992 लगे। प्रतिबन्धों को कार्यकर्ताओं ने वरदान माना। स्वयंसेवक इस अग्नि परीक्षा में कुन्दन बनकर प्रकट हुए। 1932 में सरकारी कर्मचारियों के संघ में जाने पर केवल तत्कालीन मध्य प्रान्त(महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश) में प्रतिबन्ध लगा। बाद में विधान सभा ने प्रतिबन्ध का यह प्रस्ताव वापिस लिया।
प.पू. डॉ. जी एवं प.पू.श्रीगुरु जी के निधन के पश्चात भी नए-नए आयामों तथा सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य बढ़ा और आज भी निरन्तर बढ़ रहा है। देश की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विषम परिस्थितियों में भी समर्पित कार्यकर्ताओं के बल पर संघ लक्ष्य प्राप्ति की और अग्रसर है। अनुकूलताओं का लाभ लेते हुए व प्रतिकूलता में से मार्ग निकालकर आगे बढ़ना ही अपने कार्य की विशेषता है।
"वह पथ क्या, पथिक कुशलता क्या? जिस पथ पर बिखरे शूल न हों।
नाविक की धैर्य परीक्षा क्या? यदि धाराएँ प्रतिकूल न हों।।"
राष्ट्र निर्माण हेतु व्यक्ति निर्माण का अपना कार्य परिस्थिति निरपेक्ष किन्तु राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने के लिए कार्यक्रम परिस्थिति सापेक्ष।
 

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