सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

राष्ट्रीय एकता के लिए सामाजिक समता व समरसता आवश्यक

समता ऊपरी(बाह्य) एवं भौतिक समानता का शब्द है, जबकि समरसता आन्तरिक घनिष्टता का परिचायक है। समाज में समता व समरसता न होने से ही विगत इतिहास में हमें पराजय का मुँह देखना पडा था। आज भी इसी कमी का लाभ उठाकर हिन्दु समाज को बाँटने व देश को तोड़ने का षड़यंत्र संसार की बड़ी शक्तियाँ कर रही हैं। विशेषकर हिन्दु समाज जाति-बिरादरी, ऊँच-नीच व भाषा प्रान्त में विभाजित हो रहा है। कुछ लोग अपनी राजनीति चमकाने के लिए अगड़े-पिछड़े के भेद खड़े कर रहे हैं। इन भेदों को समाप्त करने के लिए समरसता आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है कि समाज स्वस्थ व सुगठित रहे। जैसे शरीर के सभी अंगों में सामंजस्य व समरसता रहने पर ही शरीर स्वस्थ रहता है। अतः राष्ट्र की एकता के लिए भी सम्पूर्ण समाज का सुसंगठित होना आवश्यक है।

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राजनीति की और संघ दृष्टिकोण

राजनीति या राज्य संस्था, समाज के विभिन्न अंगों में से एकदेश ने 'लोकतान्त्रिक शासन तन्त्र' को स्वीकार किया जो विश्व में प्रचलित अन्य सभी शासन तन्त्रों से श्रेष्ठ है। परिवार तंत्र ,राज्यतंत्र आदि व्यवस्थाएं धीरे-धीरे काल बाह्यअन्य क्षेत्रों "वाचनालयों, व्यापार मण्डलों, सहकारी बैंकों" आदि में भी लोकतन्त्र लोकप्रियलोकतन्त्र में व्यवसायिक प्रतिनिधत्व भी हो व इसकी भारतीय परिस्थिति के अनुसार रचना हो। इस पर ध्यान देना हमारा सामाजिक दायित्व है।
संघ का दृष्टिकोण:- सम्पूर्ण समाज का संघठन करना, किसी गुट या सम्प्रदाय का नहीं। राजनीति में राष्ट्रीय विचारों वाले तथा देश के प्रति कर्तव्यभावी लोग चुने जायें। राष्ट्रहित सर्वोपरि , व्यक्ति, परिवार, जाति, पन्थ, क्षेत्रदल आदि से ऊपर राष्ट्रहित में मतदान करना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य , मतदान से पहले "मतदाता जागरण" के कार्य होने चाहिए

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शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

स्वदेशी की संकल्पना और व्यवहार

15 अगस्त 1947 को जब अपना देश स्वतन्त्र हुआ तब यह आशा बँधी थी की अब हम विकास के मार्ग पर तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए विश्व में एक सुखी, सम्पन्न, समृद्ध, स्वावलम्बी एवं सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में खड़े हो सकेंगे। किन्तु आज के भारत पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो घोर निराशा ही हाथ लगती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे और गम्भीर संकटों में फँसी हुई प्रतीत होती है।

इसके समाधान के लिए दो प्रमुख मार्ग हैं--
●  एक मार्ग जिसके अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं,
     विदेशी पूँजीपतियों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के
     सहारे पश्चिम के सम्पन्न देशों के विकास के प्रारूप,
     तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी को अपनाकर भारत
     अपने संकटों को दूर कर सकता है।
●  इसके विपरीत दूसरे मार्ग के अनुसार भारत स्वदेशी
     तन्त्र एवं स्वदेशी प्रारूप को अपनाकर, अपने ही
     बलबूते पर देश के विकास का सामर्थ्य जुटा सकता
     है। इस मार्ग के अनुसार अपनी वर्तमान चुनौतियों
     के समाधान के सूत्र अपनी परम्परा में ही खोजने
     की आवश्यकता है।

स्वदेशी दर्शन की अवधारणा "स्व" के साक्षात्कार एवं "स्वत्व" के जागरण की अवधारणा है। स्वदेशी दर्शन से तात्पर्य है ''अपने शाश्वत् जीवन मूल्यों के प्रकाश में अपने देशसमाज की प्रकृति, प्रवृति एवं सामाजिकआर्थिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में मुख्यतः अपनी ही शक्ति, सामर्थ्य, साधन-सम्पदाओं एवं कौशल-प्रतिभाओं के आधार पर देश की कर्म शक्ति व ऊर्जा के जागरण द्वारा, धारणक्षम, पोषणक्षम, संस्कारक्षम, सर्व मंगलकारी, सन्तुलित एवं सर्वतोमुखी विकास का दर्शन'' । स्वदेशी दर्शन एक बहुआयामी, सर्वव्यापक, सार्वभौमिक अवधारणा है। यह कोई संकुचित अवधारणा नहीं है। सम्पूर्ण संसार के लिए विकास का कोई एक जैसा प्रारूप नहीं हो सकता। विविधता संसार का सत्य और सौन्दर्य दोनों हैं।

स्वतन्त्रता आन्दोलनों का प्रेरणा केन्द्र स्वदेशी --स्वदेशी भाव-भावना और रचना के लिए विभिन्न प्रयासों ने समूचे स्वाधीनता आन्दोलन को गति एवं ऊर्जा प्रदान की। दादा भाई नौरोजी ने तो अपने "आर्थिक निकासी सिद्धान्त" के आधार पर ही स्वतन्त्रता आन्दोलन को परिभाषित किया था। भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद की साकार अभिव्यक्ति 'स्वदेशी' ही रही है। स्वतंत्रता आन्दोलन की एक प्रवृति के नाते स्वदेशी का उल्लेख 1849 में पुणे से प्रकाशित "भास्कर" पत्र में मिलता है। इस पत्र में जनता से विदेशों से आयातित उत्पादों के स्थान पर भारतीय उत्पादों के प्रयोग की बात कही गयी थी। 1857 में पंजाब में नामधारी पन्थ के प्रेरणा स्रोत  सत्गुरु रामसिंह जी की योजना व प्रेरणा से प्रारम्भ हुए कूका आन्दोलन में ब्रिटिश व्यवस्थाओं का बहिष्कार करते हुए स्वदेशी व्यवस्था खड़ी करने का शुभारम्भ हुआ। बंगाल में 1867 में नावगोपाल मित्र और ऋषि राजनारायण घोष के प्रयासों से हिन्दु (स्वदेशी) मेलों का आयोजन प्रारम्भ। 1872 में महादेव गोविन्द रानाडे द्वारा पुणे में आर्थिक विषय पर एक सार्वजानिक भाषण माला का आयोजन जिसमें स्वदेशी का जोरदार आवाहन किया। स्वामी दयानन्द, महर्षि अरविन्द, लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, महात्मा गांधी, बाबू गेनू आदि इसी स्वदेशी आंदोलन के प्रकाश स्तम्भ हैं।

स्वदेशी संरचना :--
स्वदेशी दृष्टिकोण के अनुसार पूँजीवाद तथा समाजवादी संरचना का सही विकल्प विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था ही हो सकती है। गांधीजी की स्वराज कल्पना में भी स्वदेशी अर्थव्यवस्था ही प्रमुख थी।
स्वदेशी दृष्टिकोण न तो सरकार आश्रित अर्थव्यवस्था में विश्वास रखता है और न ही बाजार आश्रित अर्थव्यवस्था में। यह जन आश्रित अथवा जन सहयोग एवं जन सहभागिता वाली अर्थव्यवस्था में विश्वास रखता है।

स्वदेशी व्यवहार का आर्थिक पक्ष :--
स्वदेशी अर्थ रचना खड़ी कर उसे गतिमान बनाने के लिए स्वदेशी व्यवहार अर्थात् यथा सम्भव स्वदेशी उत्पादकों द्वारा उत्पादित(निर्मित) सामान का ही प्रयोग करना। अपेक्षा है कि देश के उत्पादक उद्यमी अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर कम मूल्य पर शुद्ध एवं उच्च गुणवत्ता वाली वस्तुओं का उत्पादन करें।
देश के वैज्ञानिक, तकनीशियन, शोधकर्ता एवं शोध संस्थायें देश की प्रतिभा व कौशल का प्रयोग करते हुए अपनी परिस्थितियों के अनुरूप योग्य तकनीकी का विकास करें। सरकार को कभी भी विदेशी कम्पनियों का आधिपत्य नहीं होने देना चाहिए। उसको विदेशी निवेश के मोहजाल से बाहर निकलना होगा। विश्व व्यापार संघठन(WTO) में अन्य विकासशील देशों के सहयोग से अपनी शर्तों को मनवाने के लिए प्रयास प्रारम्भ करने चाहिए। देश के हितों की पूर्ति यदि विश्व व्यापार संघठन से नहीं होती दिखाई दे तो विकासशील देशों को नेतृत्व प्रदान करते हुए "विश्व व्यापार संघठन" से बाहर आ जाना चाहिए।

स्वदेशी व्यवहार का सामाजिक पक्ष:--
स्वभाषा, स्वभूषा, स्वभोजन आदि एवं "स्व" का अभिमान स्वदेशी व्यवहार के लिए प्रेरणा, इसलिए घर, परिवार, व्यवसाय, उत्सवों आदि में इनका आग्रह। अपनी भाषा व भारतीय वेशभूषा का प्रयोग, धार्मिक अनुष्ठानों, मांगलिक कार्यों व राष्ट्रीय दिवसों पर अवश्य करना चाहिए। अधिकाधिक पारम्परिक भोज्य पदार्थों और मिष्ठानों को बढ़ावा देना, घर की आंतरिक सज्जा स्वदेशी हो। घर में पारम्परिक फलदार व फूलदार वृक्ष व पौधे लगाए। गौधन स्वदेशी का प्रतिक है।गौ पालन प्रारम्भ करना चाहिए। यदि गौपालन सम्भव नही तो परिवार में गौदुग्ध व उससे बने उत्पादों के प्रयोग का स्वभाव बनायें यथा सम्भव भारतीय चिकित्सा पद्धतियों, औषधियों तथा घरेलु उपचार परम्परा का उपयोग करना चाहिए।

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शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

संघ कार्य परिस्थिति निरपेक्ष

अधिकाँश कार्य व संघठन किसी तात्कालिक समस्या 
की प्रतिक्रिया स्वरुप जन्म लेते हैं। संघठित अवस्था किसी भी समाज की स्वाभाविक अवस्था है। हिन्दु संघठन एक सकारात्मक व विधायी कार्य है। किसी विशेष परिस्थिति अथवा किसी विशेष प्रतिक्रिया के कारण नहीं। हिन्दु संघठन, मुसलमान व ईसाई समाज के विरोध के लिए नहीं अपितु अपने ही हिन्दु समाज की सर्वांगीण उन्नति के लिए है। उसका स्वरुप सकारात्मक व राष्ट्रपोषक है। सुदृढ़, स्वस्थ व शक्तिशाली समाज ही सम्मान से जीवित रह सकता है अतः यह(संघठन)राष्ट्रीय कार्य है। यह सभी स्थितिओं-परिस्थतियों में कार्य के अनुसार कार्यकर्ताओं की मानसिक तैयारी करने व बाधाओं में से मार्ग निकालकर आगे बढ़ाने वाला कार्य है। इस हेतु दैनिक शाखा सर्दी, गर्मी, वर्षा में भी सभी कार्यक्रमों में समय का आग्रह व अभ्यास। संघ पर तीन प्रतिबन्ध 1948, 1975, 1992 लगे। प्रतिबन्धों को कार्यकर्ताओं ने वरदान माना। स्वयंसेवक इस अग्नि परीक्षा में कुन्दन बनकर प्रकट हुए। 1932 में सरकारी कर्मचारियों के संघ में जाने पर केवल तत्कालीन मध्य प्रान्त(महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश) में प्रतिबन्ध लगा। बाद में विधान सभा ने प्रतिबन्ध का यह प्रस्ताव वापिस लिया।
प.पू. डॉ. जी एवं प.पू.श्रीगुरु जी के निधन के पश्चात भी नए-नए आयामों तथा सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य बढ़ा और आज भी निरन्तर बढ़ रहा है। देश की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विषम परिस्थितियों में भी समर्पित कार्यकर्ताओं के बल पर संघ लक्ष्य प्राप्ति की और अग्रसर है। अनुकूलताओं का लाभ लेते हुए व प्रतिकूलता में से मार्ग निकालकर आगे बढ़ना ही अपने कार्य की विशेषता है।
"वह पथ क्या, पथिक कुशलता क्या? जिस पथ पर बिखरे शूल न हों।
नाविक की धैर्य परीक्षा क्या? यदि धाराएँ प्रतिकूल न हों।।"
राष्ट्र निर्माण हेतु व्यक्ति निर्माण का अपना कार्य परिस्थिति निरपेक्ष किन्तु राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने के लिए कार्यक्रम परिस्थिति सापेक्ष।
 

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गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016

संघ कार्य की प्रासंगिकता

संघ स्थापना के समय देश परतन्त्र था। उस समय संघ की प्रतिज्ञा में "हिन्दु राष्ट्र को स्वतन्त्र करना" उद्देश्य था। स्वतन्त्र होने के पश्चात् अब संघ की क्या आवश्यकता है? यह प्रश्न उठा। परकीय शासनकर्ताओं के स्थान पर अपने शासनकर्ता आ गए। यह एक उपलब्धि हो सकती है लेकिन इसके कारण समाज की स्थिति और मानसिकता में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ। "स्वराज्य आया स्वतन्त्रता अभी प्राप्त करनी है" अर्थात् अभी पाश्चात्य विचारों का ही प्रभाव है। देश आज विभिन्न प्रकार की समस्याओं जैसे -निर्धनता, अस्पृश्यता, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, बेईमानी, स्वार्थपरता, धर्मान्तरण, आतंकवाद, घुसपैठ,नक्सलवाद आदि से ग्रस्त है। देश में राष्ट्रीय चरित्र का अभाव, स्व का विस्मरण, धर्मस्थलों की दुर्दशा, जातीय कटुता आदि विषय भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इन सबको सुधारने का दायित्व केवल शासन का ही नहीं अपितु समाज का अर्थात् हमारा भी है। मुटठी भर लोग देश की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते है। इसलिए सम्पूर्ण समाज की जागरूकता आवश्यक है। यह कार्य संस्कारित व चरित्रवान, प्रमाणिक तथा देशभक्त समाज द्वारा ही सम्भव होगा। इसलिए व्यक्ति निर्माण, समाज संघठन तथा राष्ट्र जागरण का कार्य आज भी आवश्यक एवं प्रासंगिक है। वर्तमान में इन गुणों की उत्पत्ति का यशस्वी साधन संघ अर्थात् शाखा है। शाखा के विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा ही अपेक्षित गुणों से युक्त व्यक्तियों का निर्माण सम्भव है। अतः वर्तमान परिस्थितियों में संघ की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है।
"संघ शाखा से संस्कारित स्वयंसेवकों द्वारा समाज जागरण व समस्या समाधान के उदाहरण" :--
1963 में स्वामी विवेकानन्द जन्मशताब्दी के अवसर पर विवेकानन्द शिला स्मारक निर्मित का संकल्प कर देश भर में जागरण, धन संग्रह पश्चात स्मारक का निर्माण। 1964 में विश्व हिन्दु परिषद् की स्थापना के बाद 1966 में प्रथम विश्व हिन्दु सम्मलेन में देश के प्रमुख धर्माचार्यों द्वारा परावर्तन(घर वापसी) को मान्यता 1969 में उड्डपी में आयोजित धर्म सभा में अस्पृश्यता अमान्य  की तथा धर्म में छुआछूत का कोई स्थान नहीं की उदघोषणा की। 1975 आपातकाल के विरुद्ध जनसंघर्ष किया और उसमें सफलता प्राप्त की। 1980 मिनाक्षीपुरम् में सामूहिक मतान्तरण के विरुद्ध सामूहिक जन जागरण, 1983 में एकात्मता यात्राओं के माध्यम से मूलभूत एकता की अनुभूति। 1986 से श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन द्वारा हिन्दु समाज का स्वाभिमान जागरण। "तिरुपति-तिरुमला देवस्थानम्(तिरुपति बाला जी) ईसाइयों के अतिक्रमण के विरुद्ध सफल जनान्दोलन, श्रीराम सेतु बचाने में सफलता, श्री अमरनाथ देवस्थानम् (जम्मू-कश्मीर) की भूमि प्राप्ति के लिए अभूतपूर्व सफल जनान्दोलन । यह सब संघ के सक्रिय सहयोग के कारण ही सम्भव हुआ।
कश्मीर में आतंकवाद , पूर्वोत्तर में घुसपैठ, गौहत्या व वनवासी क्षेत्रों में सामूहिक धर्मान्तरण के विरुद्ध देश भर में एक साथ प्रतिक्रिया। राष्ट्रीय अस्मिता व स्वाभिमान जागरण के प्रत्येक प्रयास में सक्रिय सहभागिता तथा देश की एकता, अखण्डता व अस्मिता के विरुद्ध षड्यन्त्रों को विफल करने में समाज की सक्रियता में संघ की हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका। भारत में अपनी पहचान के साथ-साथ अपने पुरुषार्थ के आधार पर विश्व में स्वाभिमान के साथ गौरवपूर्ण स्थिति में खड़ा होने की आकाँक्षा आज हिन्दु समाज में जग रही है। यह जगाने तथा उसे सफलता की स्थिति तक ले जाने में संघ जैसे अराजनैतिक, सम्पूर्ण समाज को जोड़ने वाले सामाजिक आन्दोलन हर समय प्रासंगिक एवं आवश्यक हैं।

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संघ कार्य सर्वोत्तम रचनात्मक कार्य

व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण :-
रचनात्मक कार्यों का प्रारम्भ सन् 1920 के असहयोग आंदोलन के पश्चात आयी निराशा को दूर करने के लिए कांग्रेस ने किया। इसके अंतर्गत कार्य थे-- हरिजन उद्धार, ग्राम सुधार, चरखा-खादी का प्रसार, दुर्बल बस्तियों की सफाई, कुएं खोदना, नालियों का निर्माण तथा श्रमदान आदि। इसी कारण इस प्रकार के कार्यों को लोग रचनात्मक कार्य समझने लगे। समाज में सर्वत्र दिखाई पड़ने वाले स्वार्थ, भ्रष्टाचार, राष्ट्रद्रोह आदि दुर्गुणों का मूल कारण राष्ट्रीय चरित्र का अभाव है। यह दूर हुआ तो सभी समस्याएँ स्वयमेव हल होती चली जाएँगी। सभी समस्याओं का समाधान चरित्र सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा ही सम्भव। अतः ऐसे व्यक्तियों का निर्माण(संस्कारित करना) ही सर्वोत्तम रचनात्मक कार्य है। पहले "राष्ट्रीय मन" की रचना आवश्यक है। राष्ट्रभक्ति, निस्वार्थता, कर्तव्यबोध दैनिक संस्कारों से ही सम्भव, यह कार्य भाषणों व नारों से नहीं हो सकता। इसलिए संघ ने शाखा द्वारा दैनिक संस्कारों की व्यवस्था की है। समाज रचना हो या राष्ट्र रचना, सबका आधार व्यक्ति है। अतः अपनी संस्कृति के आधार पर ही व्यक्ति निर्माण(चरित्र गठन) का कार्य होना चाहिए। अपनी संस्कृति, अपने जीवन मूल्य, अपनी भाषा, अपने महापुरुष, मातृभूमि की अनन्य भक्ति व गौरवपूर्ण आचरण करने वाले एक-एक व्यक्ति के कारण ही तेजस्वी, शक्तिसम्पन्न, स्वाभिमान से परिपूर्ण समाज का निर्माण होगा। अतः ऐसे व्यक्तियों का निर्माण करना ही सच्चा रचनात्मक कार्य है। इसी कार्य से सभी समस्याओं का समाधान होगा। संघ इसी कार्यों को कर रहा है।

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बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

गुरु दक्षिणा का उद्देश्य

गुरुपूजा और समर्पण भाव ---
संस्कृत की "गृ" धातु जिसका अर्थ है अज्ञान "रू" प्रत्यय लगाने से संयुक्त शब्द होता है "गुरु" जिसका अर्थ होता अज्ञान को हरने वाला। गुरु मनुष्य जीवन के विकास में सबसे महत्वपूर्ण है। किसी भी उपकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना हिन्दु समाज की विशेषता है। गुरुपूर्णिमा पर्व का महत्व इसी दृष्टि से समझने की आवश्कता है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा हिन्दु समाज में गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय समाज में वैदिक काल के समय से ही गुरु शिष्य परम्परा विद्यमान रही है। अपने यहाँ मान्यता है कि बिना गुरु के ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं। जीवन को सही दृष्टि गुरु के मार्गदर्शन से ही प्राप्त होती है। गुरुजनों के प्रति पूज्यभाव यह हमारी प्रकृति है। आध्यात्मिक विद्या का उपदेश देने और ईश्वर का साक्षात्कार करा देने वाले गुरु को अपनी भूमि में साक्षात् परम ब्रह्म कहा गया है। महर्षि दयानन्द जी ने भी गुरु का महत्व समझाते हुए कहा है कि "गु" अर्थात् अन्धकार, "रु" अर्थात् मिटाने वाला गुरु अर्थात् अन्धकार को मिटाने वाला ,अर्थात् ज्ञान देने वाला। इस सृष्टि में "माँ" ही प्रथम गुरु है। भारतीय संस्कृति में व्यक्ति ही नहीं तत्व को भी गुरु के रूप में स्वीकार करने की परम्परा विद्यमान है। गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन एवं समर्पण का प्रतिक "गुरु दक्षिणा" यह हमारी प्राचीन पद्धति है जैसे :- आरुणि, शिवाजी, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, कौत्स आदि। संघ में व्यक्ति के स्थान पर तत्व निष्ठा का आग्रह किया गया। संघ ने पवित्र भगवाध्वज को गुरु स्थान पर स्वीकार किया क्योंकि यह राष्ट्र का प्रतिक है। आवश्कता है जिसे गुरु माना उसकी नित्य पूजा अर्थात् उसके गुणों को अपने अन्दर लाने की। "पतत्वेष कायो" एक संकेत मात्र है। इसका वास्तविक अर्थ केवल काया(शरीर) तक सीमित नहीं है। इसका वास्तविक अर्थ है मेरा शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा तथा वह सब कुछ जो मेरे पास किसी भी रूप में है उस सबका समर्पण।
श्री गुरुदक्षिणा ? :- वर्ष में एक बार स्वयंसेवक श्रद्धाभाव से ध्वज के सम्मुख उपस्थित होकर उसका पूजन करते हैं अर्थात् श्री गुरु के सम्मुख दक्षिणा अर्पित करते हैं। और श्रीगुरुदक्षिणा में धन के समर्पण के साथ-साथ 'मैंने दिया' इस भाव का भी समर्पण है अर्थात् मन में यह भाव भी नही आना चाहिए।
यह वार्षिक शुल्क, चन्दा, संग्रह, दान, सहयोग राशि जैसा नहीं, गुरुदक्षिणा में जो दाएं हाथ से अर्पित किया वह बायें हाथ को भी पता न चलने पाएं अर्थात् कही भी इसकी चर्चा व प्रतिफल की लेशमात्र भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। यह 365 दिन का संग्रहीत अत्यंत श्रद्धापूर्वक, पवित्र भाव से, अपनी दैनिक आवश्कताओं में से कुछ कटौती करते हुए सञ्चित धन को गुरु राष्ट्रदेव अर्थात् भगवाध्वज के श्रीचरणों में विनीत भाव से समर्पित करना ही गुरुदक्षिणा हैं।

समर्पण के परिणाम--
स्वयंसेवकों में समर्पण भाव की निरन्तर वृद्धि होना।

समर्पण राशि की चर्चा व प्रतिफल नहीं के परिणाम---
स्वयंसेवकों में हीनता तथा अहंकार नहीं।

365 दिन का संग्रहीत समर्पण का परिणाम---
नित्य संग्रहण कर दक्षिणा के संस्कारों के कारण धीरे-धीरे लाखों स्वयंसेवकों में समाज के प्रति दायित्व बोध जागृत होता है।

संघठन आत्मानिर्भर होगा।

संघठन पर किन्हीं बाहरी लोगों का वर्चस्व नहीं होगा।

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