अहिन्दुओं की और हिन्दु दृष्टिकोण
यदि जिसमें यहाँ के पूर्वजों , इतिहास , परम्परा के प्रति सम्मान तथा अपनापन है , तो उपासना पद्धति भिन्न (अहिन्दू) होते हुए भी वे राष्ट्रीय अर्थात हिन्दू ही हैं। जैसे इंडोनेशिया के मुसलमानों ने पूजा पद्धति बदली किन्तु पूर्वज नहीं।
प्रचलित अर्थों में जिन मत-पंथो-सम्प्रदायों का उद्भव भारत के बाहर हुआ उन्हें अहिन्दु माना जाता है।
भारत में उपासना पद्धति के आधार पर भेदभाव नहीं , क्योंकि हम हिन्दु सभी को हिन्दु दृष्टि (उदारता) से देखते है , जो भी भारत को मातृभूमि और यहाँ के पूर्वजों , इतिहास व परंपराओं को अपना मानते हैं वह प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रीय (हिन्दु) है (हिन्दु एक जीवन शैली है ) फिर चाहे उसकी उपासना पद्धति कोई भी हो। हिंदुत्व कोई सम्प्रदाय विशेष नहीं अपितु एक जीवन पद्धति है (Way of life) ( सर्वोच्च न्यायालय की टिपण्णी भी यही है) यह भारत की मूलधारा है इसलिए "हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है"
अर्थात जो राष्ट्रीय है वह हिन्दु है , जो हिन्दु है वह राष्ट्रीय है यह एक दूसरे के पूरक हैं यह समझना चाहिए ,भारत में रहने वाले लगभग सभी मुस्लिमों,ईसाइयो मतावलम्बियों के पूर्वज हिन्दु ही थे यह हम सभी जानते हैं । भय,आतंक,दमन, दबाव ,लोभ-लालच व रूढ़ियों में फँसकर उनका मत परिवर्तन हुआ था , मत परिवर्तन के साथ ही वे राष्ट्रीय धारा व परंपराओं से भी दूर होते चले गए।जहाँ तक अल्पसंख्यकत्व का प्रश्न है यह वंश या भाषा पर आधारित होता है।अतः ईसाई और मुस्लिम भारत में अल्पसंख्यक नहीं हैं (संविधान के अनुसार मुस्लिम तो बिलकुल भी नहीं हमारा संविधान दस प्रतिशत से नीचे की जनसँख्या को अल्पसंख्यक मानता है) यहूदी और पारसी अवश्य भारत में अल्पसंख्यक हैं।
जीवन के प्रति हिन्दु (राष्ट्रीय) दृष्टिकोण अपनाना अर्थात विभिन्न उपासना - पंथो का आदर करना जैसे ऋषि-मुनियों ने कहा है- "एकं सत् विप्रा: बहुदा वदन्ति" (सत्य एक है विद्ववान उसे अलग-अलग प्रकार से कहते हैं) इस सत्य को स्वीकारना है,मतान्तरण न करना, अपनी उपासना पद्धति एवं रचना को भारतीय आधार देना चाहिए।
इस विषय पर "महापुरुषों " के कथन :-
डॉ हेडगेवार जी :- "डॉ साहब जी की मान्यता थी कि भारत वर्ष के मुस्लमान तथा ईसाई भी उसी ऐतिहासिक प्रजाति(Race),सभ्यता (Civilization) एवं संस्कृति (Culture) के अंश है जिसके हिन्दु हैं। आज मुस्लिमों को आभास होता है क़ि हम हिन्दुओं की तुलना में अधिक संगठित हैं , जब तक यह भावना उनके मन में है तब तक उनमें हिंदुओं के प्रति एकता का सञ्चार नहीं हो सकता । जिस दिन उनको यह आभास हो जायेगा की हिन्दु भी संगठित हो गए हैं और स्वतंत्रता प्राप्त करने में सक्षम हैं उसी दिन से वे स्वयं ही राष्ट्रीय धारा में सम्मिलित हो जाएंगे "।
प.पू. श्रीगुरुजी :- "हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिये कि हम इस भूमि के पुत्र हैं।अतः इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रखना अनिवार्य है।हम सब एक ही मानव समूह के अंश हैं,हम सबके पूर्वज एक ही हैं।इसलिए हम सबकी आकाँक्षायें भी एक समान हैं।मुसलमान यह कहें कि हम इस देश के मुसलमान हैं और आक्रमणकारी मुसलमान विदेशी व इस देश के शत्रु थे"।
माननीय बालासाहब देवरस :- "सांस्कृतिक अर्थ से हिन्दु शब्द का उपयोग राष्ट्रीय अर्थ में होता है उपासना पद्धति के अर्थ में नहीं। उपासना पद्धति बदलने से पूर्वज नहीं बदलते परम्पराएं , संस्कृति , व राष्ट्रीयता भी नहीं बदलती। मुसलमान और ईसाई यहाँ के ही हैं और हिन्दु राष्ट्र की अवधारणा में उनका समावेश होता है।यहाँ जो हिन्दु समाज है,उसका इस देश के साथ रीढ़(Back bone) जैसा नाता है।जब तक यह रीढ़ सशक्त नहीं होती तब तक यह देश सशक्त नहीं बन सकता,यह बात साफ है"।
नाना जी देशमुख :- "जब तक मजहब के आधार पर अल्पसंख्यक ,बहुसंख्यक का वातावरण बना रहेगा तब तक हिन्दु-मुस्लिम समस्या भारत का भविष्य बिगाड़ती रहेगी। कुटुम्ब में अल्पसंख्यक , बहुसंख्यक कोई नहीं होता।कुटुम्ब भावना ही राष्ट्रीय स्तर पर एक सुदृण , स्वावलम्बी एवं स्वाभिमानी भारत का निर्माण कर सकती है"।
माननीय रज्जु भैय्या :- "जो मुल्ला-मौलवी अलगाव मनोवृति के मुसलमान नेता हैं वे तो मुसलमानों को हिन्दु समाज से लड़वाये रखना चाहते हैं क्योंकि उसी में उनका नेतृत्व चमकेगा ।परन्तु यह प्रवृत्ति अगर बढ़ती गई और मुस्लिमों में से कुछ उदारवादी लोग नहीं दिखायी दिये तो सम्पूर्ण मुस्लिम समाज के बारे में हिन्दु समाज की धारणा बिगड़ जायेगी"।
माननीय सुदर्शन जी :- "देश के मुसलमानों को अपने विचार और चिन्तन में बदलाव लाने की आवश्कता है, उन्हें विदेशी आक्रान्ताओं से अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। भले ही वे उनके मजहब के हों। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह कभी नहीं माना कि यहाँ के मुसलमानों का मूल भारत के बाहर है , वे भी इसी महान देश , समाज व संस्कृति के अंग हैं।अत्यंत आवश्कता है मुसलमानों को इन सम्बन्धों को समझने की ।धरातल का यथार्थ उनको समझना चाहिए"।
दत्तोपन्त ठेंगड़ी :- "आश्चर्य की बात है कि जो अत्यंत अल्पसंख्यक हैं वे पारसी व यहूदी तो निर्भय हैं और मुख्य राष्ट्रीय विचारधारा से एकात्म हैं।मुसलमान बहुसंख्यक में होते हुए भी चिन्ता प्रकट करते हैं और मुख्य राष्ट्रीय विचारधारा से एकात्म होना पसन्द भी नहीं करते हैं।इसके क्या कारण हैं? क्या इसमें राजनैतिक कारणों की दुर्गन्ध नहीं आती "?
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